श्री अभिनंदन भगवान: चौथे तीर्थंकर

श्री अभिनंदन भगवान - चौथे जैन तीर्थंकर
श्री अभिनंदन भगवान जैन धर्म के वर्तमान ब्रह्मांड चक्र के चौथे तीर्थंकर हैं। अपनी करुणा, ज्ञान और आध्यात्मिक अनुशासन के लिए पूज्य, उन्होंने असंख्य आत्माओं को धर्म और मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जन्म और बचपन: एक दिव्य शुरुआत
उनका जन्म पवित्र नगरी अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश के राजा संवर और रानी सिद्धार्थ के घर हुआ था। उनका जन्म माघ शुक्ल द्वितीया को हुआ था, जो जैन परंपरा में अत्यंत शुभ दिन माना जाता है।
उनके नाम, "अभिनंदन" का अर्थ है "वह जिसका उत्सव मनाया जाता है और जिसका हर्षोल्लास से स्वागत किया जाता है।" उनके जन्म के समय, दिव्य उत्सव देखे गए थे, और उनकी माँ ने दिव्य स्वप्न देखे थे जो उनकी महानता की भविष्यवाणी करते थे। उनका रंग सुनहरा था और उनका प्रतीकात्मक प्रतीक वानर था, जो सतर्कता और बुद्धिमत्ता का प्रतीक था।
त्याग का मार्ग
राजसी सुख-सुविधाओं में पले-बढ़े होने के बावजूद, अभिनंदन भगवान में आध्यात्मिकता के प्रति गहरा रुझान था। छोटी उम्र से ही, उनमें सांसारिक सुखों से विरक्ति और सत्य के प्रति तड़प दिखाई देती थी।
30,000 वर्ष की आयु में उन्होंने राजपाट त्यागकर तपस्वी जीवन अपना लिया। माघ शुक्ल द्वादशी को उन्होंने 1,000 अन्य तपस्वियों के साथ दीक्षा ली। यह समारोह एक दिव्य दृश्य था जिसमें दैवीय प्राणी और भक्त उपस्थित थे।
आध्यात्मिक ज्ञान
प्रियंगु वृक्ष के नीचे 18 वर्षों की गहन तपस्या और ध्यान के बाद, उन्हें केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) की प्राप्ति हुई। सभी कर्म बंधनों से मुक्त होकर, उन्होंने पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और दिव्य ध्वनि नामक दिव्य उपदेश दिए।
उन्होंने अहिंसा , सत्य और अपरिग्रह के शाश्वत मूल्यों का प्रचार किया और साधकों को मुक्ति की ओर मार्गदर्शन दिया।
मोक्ष और मुक्ति
वर्षों की आध्यात्मिक शिक्षा के पश्चात, श्री अभिनंदन भगवान ने वैशाख शुक्ल अष्टमी को सम्मेद शिखरजी में 1,000 भिक्षुओं के साथ मोक्ष प्राप्त किया। उनकी आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर, मुक्त प्राणियों के शाश्वत धाम, सिद्धशिला पर आरोहित हुई।
अनसुनी और छिपी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि
- राजा महाबल के रूप में अपने पिछले जीवन के दौरान, एक दिव्य ऋषि ने उनके तीर्थंकर के रूप में भविष्य में जन्म लेने की भविष्यवाणी की थी।
- उनके दिव्य रक्षक यक्ष यक्षेश्वर और यक्षिणी वज्रश्रींकला हैं, जो अपने भक्तों को आशीर्वाद देते रहते हैं।
- कई तीर्थंकरों के विपरीत, उनकी मूर्तियाँ शायद ही कभी खड़ी मुद्रा में पाई जाती हैं, जो उनकी आंतरिक शांति को दर्शाती है।
- अयोध्या में उनको समर्पित ऐतिहासिक मंदिर सबसे पुराने और सर्वाधिक पूजनीय जैन मंदिरों में से एक है।
- यद्यपि उनके वंश ने शक्तिशाली सम्राटों को जन्म दिया, फिर भी उन्होंने सत्ता के स्थान पर त्याग को चुना - आत्म-नियंत्रण का उदाहरण स्थापित किया।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1) उन्हें "अभिनंदन" क्यों कहा जाता है?
क्योंकि उनके जन्म से अपार खुशी हुई थी और दिव्य प्राणियों ने इस अवसर का जश्न मनाया था।
2) उनका मुख्य संदेश क्या है?
आत्म-अनुशासन और वैराग्य ही सच्ची खुशी और मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
3) उन्हें मोक्ष कहाँ प्राप्त हुआ?
पवित्र सम्मेद शिखरजी , जैन तीर्थयात्रियों के लिए सबसे पवित्र स्थल।
4) 24 तीर्थंकरों में उन्हें क्या विशिष्ट बनाता है?
उनके त्याग से पहले उनका शासनकाल असाधारण रूप से शांतिपूर्ण था, जबकि अन्य लोगों को अधिक सांसारिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था।